Ajay

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जुस्तजू भाग --- 24


कभी ख़ुद पे ऐतबार न था, न कुछ पाने की आरजू।
पर बदले हैं एहसास जबसे मेहबूब का साथ मिला।।
अब हर कदम तुझसे जंग, ए जिंदगी !!
हर खुशी पा लेने की जुस्तजू है।।




उधर उदयपुर ख़बर कर दी गई तो सौम्या के घर भी फ़ोन कर दिया गया। मुंबई में भी तैयारियों की शुरुआत के लिए अनुपम फोन करने जा रहा था कि तभी बड़ी दादी का फ़ोन आ गया।

"प्रणाम दादीजी।"

"जीते रहो। सुषमा कहां है ? बात कराओ।"

"जी दादीजी।"

उसने अपनी मम्मी के कमरे में जाकर उन्हें फ़ोन पकड़ाया। मम्मी अपने छोटे पोते के साथ खेलने में मगन थी। शायद इसीलिए उन्होंने अपना फ़ोन बंद कर दिया था। ताकि उन्हें कोई डिस्टर्ब न कर सके।

"बहूजी, सौम्या की सभी रस्में उदयपुर अपने घर में ही होंगी। हमने उसे केवल कहने के लिए बेटी नहीं माना।"

"पर मां सा, सौम्या के माता पिता......"

"नंबर भेज दो, सुधीर (उनके देवर) बात कर लेंगे उनसे। और आप सभी अभी के अभी उदयपुर के लिए रवाना हो जाओ।"

"जी मां सा।"

उन्होंने फ़ोन काटा ही था कि आरूषि के मामाजी और अनुपम के भाई भी वहीं आ गए। उनको भी उदयपुर से फ़ोन आ गए थे और रवानगी के टिकट भी। आरूषि के मामाजी उदयपुर में सब कार्य होने से बेहद खुश थे। उधर सौम्या के घर भी फ़ोन जा चुका था। उनके आने की व्यवस्था भी उदयपुर से करवाकर टिकट भेज दी गई थी।
आरूषि और सौम्या को मम्मी ने अपने कमरे में बुलवा लिया था।

"अनुपम और आप कल सुबह उदयपुर आ जाइएगा। हम सब अभी रवाना हो रहे हैं। अनुपम तुम 10 दिन की लीव के लिए अप्लाई कर दो और आरूषि तुम अपना इस्तीफा लखनऊ भिजवा दो। अब तुम हमेशा मेरे पास ही रहोगी।"

आरूषि की नजरों में कुछ प्रश्न थे। उन्होंने उसे पढ़ लिया और बाकी सबको चलने के लिए कहकर उन्होंने आरूषि को अपने पास रोक लिया।

"तुम्हे परेशान होने की जरूरत नहीं। अब हॉस्पिटल,मुझे और तुम्हारे बेटे को यहां जरूरत है तुम्हारी।"

"मम्मी...."

"लखनऊ में हमने सब ठीक करवा दिया है। अख़्तर भी ठीक है अब। रुखसाना भी आएगी उदयपुर।"

आरूषि निशब्द थी। वह उनसे लिपट गई।

"बस अब रोना नहीं। मेरी बेटी बहादुर है। जीवन में संघर्ष के पल आते रहेंगे पर अब तुम्हे लड़ना सीखना होगा। कल उदयपुर चले आना अनुपम के साथ। अभी तो आरव को ले जा रही हूं। हां, बड़ी दादी नाराज़ हैं पर गलती तो हुई है न।"

आरूषि चुप थी पर उसे अपनी मम्मी पर विश्वास था कि वे दादी की नाराज़गी को शांत कर देंगी।

सभी उदयपुर रवाना हो गए अब घर में केवल वही दोनों थे।

 आरूषि ने अनुपम को छोटू दे दिया और ख़ुद खाना बनाने की तैयारी में जुट गई। वह जानती थी कि अनुपम उसके बने खाने को काफ़ी मिस कर रहा था। उधर अनुपम अपने लाड़ले के प्यार में खेलने लगा। आरूषि अनुपम को बुलाने आई तो दोनों बाप बेटे सो गए थे। आरूषि अनुपम के चेहरे को देखने लगी। अनुपम के चेहरे पर शान्ति थी और सिर के उस भाग पर जहां ऑपरेशन हुआ था वह निशान चमक रहा था। अनुपम अपनी मां की तरह खूबसूरत था और अपने पिता जैसा लंबा तो यह निशान जैसे चांद पर दाग ही था। आरूषि फिर से अपने एहसासों में डूब गई। वह अनुपम की ओर बैठी और हल्के से उसके निशान पर होंठ रख दिए। उसने धीरे से किस किया तभी उसकी आंखों से आंसू अनुपम के चेहरे पर टपक गए। अनुपम उठ बैठा।

"यह मोती क्यों बरसाए जा रहे हैं ?"वह फुसफुसाया।

" सॉरी......."

"बस, कुछ नहीं। चलो बाहर चलें।"

अनुपम से लिपटी वह उसके साथ बाहर चली आई।

"अब बताओ, मेरी परी को रुलाया क्यों ?"

"आपकी परी ??" आरूषि थोड़ी हैरान थी।

"यह नहीं दिख रही ??"

"पर आप तो राज......."

"हां तो कभी भी गायब हो जाती है न तो परी बन गई मेरी राजकुमारी।"

"यह परी बहुत ख़राब है न !"

"हूं, है तो, पर कंपनसेट करेगी न ?"

आरूषि अनुपम की शरारत समझ गई और शरमा गई।

"आज भूख नहीं लगी वैसे तो बिना खाना...."

"पर आज आप खिलाएंगी।"

"हां मम्मी अपना बच्चा छोड़ गई है न मेरे भरोसे।"

"तो देवीजी, बच्चे की सारी फरमाइश पूरी होगी न ?"

"धत, खाना खाइए और सो जाइए अपने बेटे के साथ।"

अनुपम ने और कुछ बोलने के लिए मुंह खोला पर आरूषि ने खाना खिलाना शुरू कर दिया। आज आरूषि डूबी हुई थी उसके  प्यार में। वह प्यार, जो अनुपम और उसके परिवार से उसे मिल रहा था। रात प्यार और जज्बातों में डूबी बीत गई और सुबह फिर आरूषि अपने समय पर उठ गई। उसने पहले छोटू को फ़ीड कराया और अनुपम के साथ सुला दिया। अनुपम भी कुछ देर में उठ गया। दोनों उदयपुर जाने की तैयारियों में जुट गए। न चाहते हुए भी अनुपम को रात हो गई आरूषि भी हॉस्पिटल का जायजा लेने चली गई थी उसे भी समय लगा तो दोनों रात की फ्लाईट से उदयपुर लगभग एक बजे उतरे वहां उन्हे ले जाने कार आ गई। सलूंबर पहुंचने पर अनुपम के सबसे छोटे भाई ने उन्हें रिसीव किया। वे लोग गेस्ट हाउस की ओर बढ़े ही थे कि उन्होंने टोक दिया।

"आपकी जगह मेहमानों में नहीं है भाईसा। कोठी में ऊपर नई मंजिल चढवा दी गई है। अब आपकी जगह है वो।"

अनुपम अपनी दादी और परिवार के प्यार से अभिभूत था। उसका साथ परिवार ने बखूबी दिया था। आरूषि भी अभिभूत थी पर थोड़ी डरी हुई भी थी। आखिर दादी नाराज़ थी।

"भाभीसा आप अंदर पधारें।"तभी उसकी छोटी देवरानी भी बाहर आ गई।
आरूषि अब कुछ ज्यादा ही डर गई। वह अंदर जाने से हिचक रही थी पर अंदर जाना तो था।

"इधर आ मेरे पास"बड़ी दादी इस समय जग रही थी। 
 आरूषि हैरान थी। उसने बच्चे को देवरानी को संभलवाया और ख़ुद उनके पैर छूने को झुकी।

"तुझे डरने की जरूरत नहीं। बस इतना याद रखना अब कभी भी तू अकेली नहीं है और जब अकेलापन लगे तेरी दादी है तेरे साथ।"उन्होंने उसे गले से लगा लिया।

आरूषि अवाक थी। वह क्या सोच रही थी और हो कुछ और ही रहा था !! वह उनके गले लगकर फिर से रोने लगी।

"चुप, मुझे रोतलू बहुएं बिल्कुल अच्छी नहीं लगती।" उन्होंने उसे प्यार से डांट दिया। 
सभी शायद उन्हीं का इंतज़ार कर रहे थे। सुबह के साढ़े तीन बज रहे थे तो अब कोई सोना भी नहीं चाहता था। सौम्या के रूप में उन सभी बहुओं को एक खिलौना जो मिल गया था तो तीनों मिलकर लगी छेड़ने ! सौम्या शरमा भी रही थी।

 "दी आप भी...."

"कौन दी ? ननद बाईसा इधर तो आपकी भाभी रहती है।" आरूषि की बड़ी देवरानी ने फिर से छेड़ा।

"हां और दी से कोई बात छुपाता है भला ? अब तो भाभी का रिश्ता ही है।" आरूषि ने भी हां में हां मिला दी।

सौम्या और उसका परिवार महज़ एक दिन में ही घुल मिल गए थे। उनका प्यार देखकर सौम्या के माता पिता बस निशब्द थे। सुबह साढ़े चार बजते ही तीनों बहुएं तैयार होकर पूजा में लग गई। उधर अनुपम सहित उसके परिवार के सभी पुरुष सगाई की तैयारियों में जुट गए। घर में चारों तरफ रौनक बिखर गई थी। काम के साथ हंसी मजाक से घर गुलजार था। नौ बजे आरूषि के मामा उसे लेने आ गए। उनके लिए भी एक ही बेटी थी। उन्होंने सारे परिवार से उसे और अनुपम को ले जाने की अनुमति मांगी। अनुपम ने विनम्रता से नकार दिया पर दादी ने आरूषि को ले जाने की अनुमति दे दी।

"मामोसा, मैं शाम को चली आऊंगी। अभी कुछ देर यहां रह लूं, प्लीज़।" आरूषि का मन ही नहीं हो रहा था वो सब छोड़कर जाने का। आखिर परिवार क्या होता है उसे अनुभव हो रहा था।

"जी सगा सा। अनुपम इसे ले आएगा। आप निश्चिंत रहें।" दादीजी ने आरूषि का मन देखकर मामाजी को आश्वासन दिया।

दिन भर मेहंदी, गीत, हंसी मजाक और काम में कब निकला, पता ही न चला। अब आरूषि को बहन का कर्तव्य भी निभाना था। अनुपम उसे और छोटू को लेकर आरूषि के मामाजी के घर आ गया। आरव का मन वहां लग चुका था तो उसने अपनी दादी का आंचल पकड़कर मना कर दिया। यहां तो जैसे सब बिखरा था। घर में पहली शादी थी और कोई सही से संभालने वाला था ही नहीं। शिवेंद्र घनचक्कर बना पड़ा था। अनुपम ने तुरंत स्थिति समझ ली और जुट गया। उसने अपने भाइयों और अपने ननिहाल से भी मदद बुला ली। तुरंत ही वे सब लोग न केवल वहां चले आए बल्कि परिवार की कुछ महिलाएं भी आ गई। अब वहां भी रौनक छा गई थी। जल्दी ही शिवेंद्र को भी तैयार कराकर वे सब कोठी की ओर रवाना हो गए।
कोठी पर उनका स्वागत किया गया। सौम्या को नीचे लाया गया। सौम्या सुर्ख लाल लहंगे ओढ़नी में बेहद खूबसूरत लग रही थी। नजरे नीचे झुकाए हुए वह चुपचाप अपनी भाभियों से घिरी आ गई। 
आरूषि ने शिवेंद्र की ओर देखा उसकी नजरें भी सौम्या की ओर ही थी।

"भाई थोडा सब्र करो। यह अब आपकी ही है।"

 आरूषि ने छेड़ा उसे। वह शरमा गया और इधर उधर देखने लगा। तभी आरूषि के परिवार के पुरोहित ने पूजा संपन्न कर अंगूठी पहनाने की रस्म अदायगी को कहा। सौम्या को पूरी तरह घूंघट उढ़ाकर लाया गया और राजपूती परंपरानुसार बीच में पर्दा कर दिया गया। पर्दे के उस तरफ़ से शिवेंद्र ने हाथ बढ़ाया। सौम्या की भाभियों ने उसे अंगूठी दी और पहनाने को कहा। सौम्या ने धीरे से शिवेंद्र को अंगूठी पहना दी। अब शिवेंद्र की बारी थी। पर आरूषि और उसकी देवरानियों ने सौम्या का हाथ रोक लिया।

"पहले कसम खाइए कि हमारी ननद को कभी भी परेशान नहीं करेंगे।"

"देखो कह कौन रही है ? जो खुद कभी चूकती नहीं।"अनुपम धीरे से बड़बड़ाया। " भाई फिर से सोच लो।" वह शिवेंद्र से बोला।

"जीजी सा...."

"अभी जीजी सा नहीं आपके सामने सौम्या की भाभी खड़ी है।मुझे उस ओर लाना है तो जल्दी वचन दीजिए।"

"हां कंवर सा, जल्दी जल्दी...!!"

"सोच ले भाई, अभी भी वक्त है।"अनुपम ने फिर टोका। तभी आरूषि ने इधर उधर देखकर चुपके से अपनी सैंडल की हील अनुपम के पैर पर रख दी।

"आह...."

"क्या हुआ जीजोसा ?"शिवेंद्र ने पलटकर पूछा।

"कुछ नहीं, आपके जीजोसा वाह कह रहे हैं।"आरूषि ने जल्दी से अनुपम का हाथ चुपके चुपके भींच दिया।
  अनुपम चुप हो रहा। आखिर आरूषि का विरोध करने का नतीजा भुगत चुका था वह।
शिवेंद्र ने हां भरकर उधर से सौम्या के हाथ के आगे आने पर अंगूठी पहना दी। सब फूल बरसाने लगे। दोनों को अपने अपने स्थान पर वापस ले जाया गया। सब फिर से खाने पीने और मस्ती में लग गए।

"जरा साइड में आइए"आरूषि ने अनुपम को छोटू को संभालने का बहाना कर धीरे से कहा और ऊपर चली गई। अनुपम कुछ देर बाद बहाना कर आरूषि के जाने की दिशा में बढ़ गया। उसने छोटू को मम्मी को दे दिया था।

 वह पहली मंजिल पर पहुंचा ही था कि तभी आरूषि ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर उसकी छोटी भाभी के कमरे में खींच लिया।
"अरे, अरे !! क्या गज़ब कर रही हो ?"

"सब छोड़िए और किसी तरह शिवेंद्र और सौम्या को मिलवाने का प्रबंध कीजिए।"

"आप तो सचमुच मरवाना चाहती हैं।"

"वो हमें नहीं पता पर अगर यह न हुआ तो आपकी परी नाराज़ हो जाएगी।"

"अब क्या करूं !! यह तो आज तक की सबसे बड़ी परेशानी है।"

"हल ढूंढिए जनाब। यह आईएएस अधिकारी के बाएं हाथ का खेल है।"

"यहां सब राजा महाराजा है देवीजी !!  सर काटने का हुकुम होते देर नहीं लगेगी ! और आपकी सासू मां और दादी सासू मां !!! उनकी नजरों में पड़ गया कोई तो बस.... गए समझो।"

"वो सब भी आपको ही संभालना होगा।" 

"सौम्या को कैसे लाओगी ?"

"वह मेरी जिम्मेदारी।"

"तो फिर गेस्ट हाउस की छत पर ले आओ चुपके से। बाकी मैं देखता हूं।"

"डन" आरूषि निकल गई।

"उफ्फ। आफ़त है ये तो !! चल भाई कुछ करना पड़ेगा।"अनुपम भी निकला।

वे दोनों अलग अलग बहाने से शिवेंद्र और सौम्या को गेस्ट हाउस की छत पर छोड़ आए और खुद गेस्ट हाउस का दरवाजा लगाकर बैठ गए।
उधर सौम्या और शिवेंद्र घबराए भी थे और रोमांचित भी।

"कभी सोचा न था कि आपको पा सकूंगा !!"

"और यह कब हुआ ??" सौम्या की नजरे झुकी थी पर वह धीरे से बोली।

"जीजी सा के बंगले पर, जब पहली बार देखा आपको। पर आप तो आप थी। क्या धमकाया था!!"

"मैंने कब धमकाया ? उल्टा आप ही चाय को ठुकराकर चले गए थे।"

"मैं चाय काफी पीता ही नहीं।"

" प्याला तो आपको  भिजवाती नहीं।"

"और आपको किसने कहा कि प्याला भी लेता हूं मैं।"

"आप राजपूत है न !"

"सभी राजपूत पीते हों, ज़रूरी नहीं।"

"तो आपके घर में कोई नहीं पीता ?" सौम्या अचरज में थी।

"अब आप इस घर में आ ही रही हैं सब देख लीजिएगा अपनी आंखो से। चलिए वह सब छोड़िए। आपने पहली बार कब महसूस किया ?"

"जब दी की विदा हुई।"

तभी शिवेंद्र का फ़ोन बजा, "आज के लिए इतना काफी है। नीचे आ जाइए दोनों।" यह अनुपम था।

दोनों नीचे चले आए। आरूषि और अनुपम फिर से नजरें बचाकर दोनों को अपनी अपनी जगह ले गए। अब शिवेंद्र के परिवार को लौटना था। वे अपने साथ आरूषि और अनुपम को भी सबसे मांग लाए। शिवेंद्र का घर एक महल ही था तो उन्होंने अपनी बेटी जंवाई के रुकने के लिए सबसे बड़ा कमरा खुलवा दिया था। पर आरूषि ने अपनी मां का कमरा खोलने का अनुरोध किया। मामाजी मान गए।
 उसके जाते ही मामाजी अनुपम से बोले, "कंवर सा उसकी यादें उसे परेशान कर सकती हैं। आप किसी तरह उसे वहां से ऊपर बड़े कमरे में ले जाइए।"

"ओह !! मैं कुछ करता हूं।" अनुपम ने तेज कदम बढ़ा दिए उस ओर।

आरूषि अपनी मां की तस्वीर हाथ में लिए बैठी थी।

"मम्मी, देखो आपकी बेटी की शादी हो गई है। आप चाहती थी न कि मैं डैड जी के घर में ही जाऊं ? लीजिए, भाग्य वहीं ले गया मुझे। जानती हैं आपकी प्रतिछाया हैं मेरी सासू मां !! नहीं मेरी मां ही हैं वो, आपसे बढ़कर। बचपन से अनु से बढकर चाहा है मुझे। और आज भी, कुछ भी कितना भी गलत कर दूं !! हमेशा अपने ममता के आंचल में छुपा लेती हैं वो। और पापा से कहिएगा, उनके अनु को नहीं डराती मैं...."

अनुपम हैरत और खुशी के मनोभावों से स्तंभित दरवाजे पर चुपचाप खड़ा था। आरूषि की पीठ थी उसकी ओर।

"जानती हैं अब अनु ने संभाल रखा है मुझे। और आपकी यह नालायक बेटी अपने अंदर के डर से भयभीत होकर छोड़ भागी उन्हें !! मम्मी उनके घर में सब बहुत अच्छे हैं। बड़ी दादी सा, वो तो किसी को नहीं छोड़ती पर मुझ पर अपना प्यार ही बरसाती हैं। मम्मी, बहुत खुश हूं मैं, बहुत खुश....."आरूषि की रुलाई फूट पड़ी।

अनुपम जैसे होश में आया। उसे अब आरूषि और उसके जज्बातों को संभालना था। वह जान गया था कि आरूषि की याददाश्त लौट आई है।

"आरू....., बस अब और नहीं।"उसने कसकर आरूषि को अपनी बांहों में भर लिया। आरूषि कुछ और देर उससे लिपटी रोती रही। उधर उसके मामाजी के परिवार को अनुपम के न लौटने पर चिंता हो आई थी तो वे सब भी दरवाजे पर आ गए थे और आरूषि को अनुपम से लिपटते देखकर आरूषि के मामाजी अपनी आंखें पौंछते हुए वहां से चले गए।

जब आरूषि की सिसकियां थमी तो वह अनुपम का हाथ पकड़ कर बोली,"मम्मी ये रहे वे, आपके प्यारे कंवर सा और यह आपका नवासा !! हां, एक और है पर अभी मेरी मम्मी के पास है और उनके पास ही रहेगा। हमेशा!! आप आशीर्वाद देंगी न !!"

तभी मामीजी अंदर आ गई, "बेटा थारी मां सा घणों चावै ही। पण जीजोसा भी... अब उनका स्वर भी रूंध गया था। अपने घर की बेटी पूरी तरह ठीक थी तो कौन होगा जिसे इतनी खुशी नहीं होगी!!

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2 Comments

Sandhya Prakash

25-Jan-2022 08:23 PM

बेहद इंट्रेस्टिंग... सब अच्छा हो रहा है अब

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Ajay

26-Jan-2022 12:31 AM

तकलीफों का अंत निश्चित है। या तो वे आपके अनुकूल हो जाती हैं। या फिर आप उनके साथ जीना सीख जाते हैं 🙏🏻🙏🏻

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